Tuesday, July 31, 2012

खिड़कियाँ















यह अंतहीन आकाश
धरती पर फैली
असंख्य खिडकियों में वितरित हैं

हमारे पास हमारी खिड़कियाँ हैं
खिडकियों के हिस्से में हमारा आकाश हैं
हम अपनी खिडकियों के लिए लड़ते हैं
हम लड़ते हैं खिडकियों के हिस्से आये आकाश के लिए

हम छोटे से छोटे सुराख़ के लिए भी लड़ेंगे

बेशक,
हम अपूर्ण के लिए लड़ते हैं
पर हमारा "लड़ना"
आकाश की तरह अंतहीन हैं

-अहर्निशसागर-

Saturday, July 28, 2012

इस कोलतार के नीचे

देखो
यही से मेरे पिता की
अर्थी उठी थी

इसी आँगन में
मेरी बेटियों ने
अपने बदन पर उबटन मला था

इस कोलतार के नीचे
महज ज़मीन नही
मेरे बच्चों के खेलने के मैदान हैं
मेरे पुरखों की देह गंध हैं
इस मिट्टी में

हमें यहा से मत हटाओ
यह सड़क बनने से पहले
हम फुटपाथ पर नही थे

-अहर्निशसागर -

Thursday, July 26, 2012

अंतिम सहमति












हमारा ईश्वर 
सिर्फ शांति-काल में जिन्दा होता हैं
युद्ध के चरमोत्कर्ष में सिर्फ
शहर के शराबखाने रोशन मिलते हैं 

और ये एक युद्ध की कहानी हैं
या कहूँ , ये एक शहर की कहानी हैं
क्या फर्क पड़ता हैं , जो कहूँ
ये कहानी सिर्फ उन चार लोगो की कहानी हैं
जो धरती के चार कोनों से आये हैं

वे चारो शराबखाने के कोने में बैठकर
युद्ध के कारणों पर विमर्श करते हैं
विमर्श करते हैं समाजवाद पर
और गलाफाड़ बहस होती हैं
पूंजीवाद के उन्मूलन पर
और अंततः सिर्फ एक बात पर
सहमति में सिर हिलाते हैं

की
जिन्दगी एक लत हैं
और शराब की तरह कडवी भी ..!!

-अहर्निशसागर -

Friday, July 13, 2012

सत्य अधुरा रह गया

"अगर जिते
तो जित की आसक्ति मार देगी
अगर हारे
तो दुश्मन के हाथों मारे जाओगे"

उस सारथी द्वारा
ये गीता का अंतिम सत्य
उद्भाषित होने से पहले ही
अर्जुन ने तीर कमान उठा लिए थे

सत्य अधुरा रह गया
संग्राम शुरू हो गया

और उस संग्राम के तत्पश्चात
ना कौरव बच पाए
ना पांडव बच पाए ..!!

-अहर्निशसागर-

अरे नहीं ,सबसे आसान हैं

मुर्दे की चिर-फाड़ के बाद
परिचारिका ने पूछा-

डॉक्टर ..!
हृदय निकालना सबसे मुश्किल होता होगा ना ?

सबसे मुश्किल होता हैं
आँखें निकालना
वे मरने के बाद भी जिन्दा होती हैं
हमें सावधानी बरतनी पड़ती हैं

और हृदय ..?
परिचारिका ने फिर पूछा

अरे नहीं ,सबसे आसान हैं
वह तो बहुत पहले मर चूका होता हैं ..!

-अहर्निशसागर-

विदा के क्षणों में

डर था...
की विदा के क्षणों में उभर जायेगी गाँठें
और रिसने लगेगी मवाद हृदय से
नभ खो देगा ठहराव की क्षमता
और मरीचिकाएँ करेगी , रहस्यमय शोर
चीखते हुए जलेंगे तारा-नक्षत्र

ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ

कल जैसा ही था आज भी
तेरे अहाते में बिखरी छाया का रंग
चकुलों के गीत उतने ही लयबद्ध
और
हृदय शांत था उस निर्जन वन सा
जहाँ से
गुजर चूका हैं बसंत

-अहर्निशसागर -

आस्तिक

मैं आस्तिक हूँ
घोर आस्तिक
एक अंध श्रदालु

क्यूंकी
मैनें कुछ ग़लतियाँ की हैं
मैं कुछ और ग़लतियाँ करना चाहता हूँ
मैं कुछ लोगों से नफ़रत करना चाहता हूँ

और फिर
अपने किये की क्षमा चाहता हूँ
 

-अहर्निशसागर-

तेरी अनुपस्थिति में खुश हैं वे पक्षी

तेरी अनुपस्थिति में खुश हैं वे पक्षी
रिक्त है उनके विश्राम के लिए तेरे अहाते की डोरियाँ
कल तक सूखा करता था जिस पर भीगा हुआ
एक सफेद दुपट्टा

घौंसले में दुबके बया के बच्चों की नींद
आज नही टूटी बर्तनों के शोर से
आज भी बच्चे उलझ गये थे तेरी गली में
काँच की गोटियों के लिए
पर आज बालकनी से नही हँसा
खिलखिलाकर कोई भी
आज नही हैं कंघी में फँसे हुए
तेरे केशों के गुच्छे
आज दुपहरी को भी फेरी वाले
बेर लिए लगा रहे थे आवाज़
पर आज कोई नही था खड़ा
तेरे घर की चौखट पर ऐडी उठाएँ

अहाते के नीम पर बेखौफ़ गूँज रही थी
कौओ की कांव कांव
और देर तक दूबका रहा था मैं भी
अपनी रज़ाई में
नही सुनी एक भी सिसकी
सर्द सुबह में तेरे लौट जाने के गम की

कितनी सहजता से
स्वीकार कर रही थी यह प्रकृति
तेरी अनुपस्थिति को

अब चैन से करेंगे रैन-बसेरा
तेरे घर की दीवारों पर चमगादड़
आज रात निकलेंगे दुबके चूहे बिलों से बाहर
कुतरेंगे उन तकियों को जिनमें बसी हैं तेरी केश गंध
चींटों की पंक्तियाँ अब कभी न टूटेगी
तेरे फहराते आँचल के छोर से
वे अब इत्मिनान से करेंगे इकट्‌ठे
अपने बिलों में अन्नो के दाने

सदियों बाद
मैं बिना इंतज़ार सो पाऊँगा

-अहर्निशसागर-

और फिर बुद्ध

और फिर बुद्ध
अपने भीतर समूचा जंगल लिए
शहर में लौट आये

-अहर्निशसागर -

पहले जवान लड़े

पहले जवान लड़े
और सरहद के दोनों तरफ
बसी बस्तियों में
लहूलुहान लाशें पहुचने लगी

अपने जवान बेटों को कन्धा देते देते
बूढ़ों ने भुला दिया घुटने का दर्द
सरहद पर अब ढाल उठाये
बुड्ढ़े लड़ रहे थे

जब बुड्ढ़े भी मर खप चुके
औरतों ने अपने केश खोले
सिने का दुप्पटा कमर पर कसा
स्तनों पर लोहे के कवच चढ़ाये
बच्चों को पीठ के पीछे बाँधा
और ये जानते हुए की
वे घर कभी नहीं लौटेगी
घर के किवाड़ खुले छोड़ सरहद की तरफ चल पड़ी

सरहद के दोनो तरफ
अब बस्तियां वीरान हो चुकी थी
और लड़ने के लिए
सिर्फ
उन रियासतों के राजा बचे थे

उन्होंने एक बंद कमरे में
शांति के संधि-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए

-अहर्निशसागर-

बगावत












एक दिन दुनिया की
कुछ भेड़ों ने बगावत कर दी
की वो अब नहीं रहेगी
किसी भीड़ का हिस्सा

बगावती भेडें
भीड़ से अलग हो गयी
और देखते ही देखते
एक नई भीड़ बन गयी

अब उस भीड़ की हर भेड़
खुद को
भीड़ से अलग मानती हैं

भेड़ों की इस दुनिया में
अब बगावत नहीं होती

-अहर्निशसागर-

मृत्युबोध


साँसों के रेशे जब खोल रहे होंगे
मेरी देह से बंधी अंतिम गाँठ
मेरा मन पकायेगा मेरी देह के चूल्हे पर
सफ़र का अंतिम कलेवा
और तुम भटकोगी प्रेम की गठरी सिर पर लिए
दो देह लिप्त सभ्तायों के बीच, विवश

उस निमिष अंतिम बार सुनूंगा मैं
इन छप्परों पर से गुजरते
परिंदों के झुण्ड का कलरव
और याद आ जायेगा
एक पिली शाम में उड़ता धानी आँचल
विन्ध्य के बियाबानों में खोती
एक आदिम कमंचे की धुन
तेरे लिए चुराकर लाये मकई के हरे भुट्टे
शायद ही मैं याद कर पाऊं जीवन भर के संग्राम
मेरी असफलतायें
रेत के निरर्थक टीलों पर मेरे अहम् का विजयघोष

तुम देखना ...
अविराम मेरी आँखों में
ताकि सुन सको
हमारे प्रणय का अंतिम गीत
और मैं आत्मसात कर पाऊं
विछोह की छाछ पर मक्खन बन उभर आई तेरी अम्लान छवि
शायद वो अंतिम मंथन होगा हमारे सम्बन्धों का

मेरी संततियों....!
जब तुम रो पड़ोगे
आदतन दांतों से नाख़ून कुतरते हुये
मेरी चारपाई का उपरी पायदान पकड़ कर
तब माफ़ कर देना अपने सर्जक को
उसकी अक्षमता को
शायद इस जीवन की निरंतरता का सत्य
..........इसके अपूर्ण रह जाने में ही हैं
जैसे वादन के बाद विराम
उच्छ्वास के बाद निःश्वास

तुम्हारी मान्यतायें
मुझे मृत घोषित कर देगी देह की परिधियों पर
और मैं भभक कर जी लूँगा
अपनी मौत

-अहर्निशसागर-

Thursday, July 12, 2012

बेवजह आ गयी हो छत पर

बेवजह आ गयी हो छत पर
देख रही हो
दो कपोतों के प्रेमालाप
इस सत्य से बेखबर
समूचा अस्तित्व
साँस लेने लगा है तेरी पुतलियों में
भादो के घन थाह लेकर
रूक गयें हैं तेरी पलकों पर
कोपलें निकल आई हैं
बुड्ढे दरख्तों पर
चिड़ियों के कंठ
गीतों के आवेश से फटने को आतुर

अनहद के रंग-मंच पर
ये कौन सा किरदार तुम निभाती हो !

अभी पुकारेगी एक बूढी आवाज़
और सरपट उतर जाओगी सीढियों से

छोड़कर..
आकाश को निरा
बादलों को बेसहारा
अस्तित्व को अधूरा
ये नभ-चर भटक जायेंगे अपना पथ

पुनः शुरू होगी
मेरी अंतहीन तलाश
तुम फिर हो जाओगी अग्गेय
प्रेम के मानिंद

-अहर्निशसागर-

इस प्रगतिवादी दौर में भी

इस प्रगतिवादी दौर में भी
मैं कई मामलों में रुढ़िवादी होना चाहता हूँ
मसलन
"प्रेम"
मैं आज भी ऐसे ही प्रेम करना चाहता हूँ
जैसे
पहली बार किसी आदिम पुरुष ने किया था..

 -अहर्निशसागर-